Monday, October 24, 2011

अच्छा मूल्य देने से परहेज क्यों

पिछले कुछ समय से सरकारी हलकों में यह बहस चल रही है कि किसानों को दिए जाने वाले समर्थन मूल्य में कितनी वृद्धि की जाए। हाल ही में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने यह सिफारिश की है कि गेहूं का समर्थन मूल्य पिछले वर्ष के समर्थन मूल्य 1120 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 1350 प्रति क्विंटल कर दिया जाए। उधर, पंजाब के मुख्यमंत्री ने इस वृद्धि को अपर्याप्त माना है और यह कहा है कि गेहूं के समर्थन मूल्य को कम से कम 2200 रुपये प्रति क्विंटल किया जाना चाहिए। समर्थन मूल्य को कम बढ़ाए जाने के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि देश में खाद्य पदार्थो की कीमतों में जो वृद्धि पिछले कुछ समय से हो रही है, इससे और अधिक बढ़ावा मिलेगा। इसलिए किसानों को मिलने वाला समर्थन मूल्य नहीं बढ़ना चाहिए। सरकार कुछ कृषि जींसों के लिए समर्थन मूल्य की घोषणा करती है और बाजार में मांग की कमी होने पर उस समर्थन मूल्य पर उस कृषि उत्पादों की खरीद भी करती है। इसके अतिरिक्त सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली या रोजगार कार्यक्रमों के निमित्त उपयोग होने वाले अनाज की खरीद भी करती है। सरकार द्वारा समर्थन मूल्य पर खरीद होने के कारण उस उपज का बाजार मूल्य नहीं गिरता है और किसान को उसकी उपज के न्यूनतम मूल्य मिलने की गारंटी हो जाती है। सरकार द्वारा समर्थन मूल्य घोषित करने के कारण किसान को उस कृषि उत्पाद का उत्पादन बढ़ाने के लिए उत्साह भी मिलता है। किसान को गारंटीशुदा मूल्य मिलने की आशा से उन वस्तुओं का उत्पादन भी बढ़ता है। हरित क्रांति के साथ सरकार की समर्थन कीमत देने की नीति के चलते देश में खाद्यान्नों, विशेषतौर पर गेहूं और चावल का उत्पादन बढ़ा और देश खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। किसान खुशहाल हुआ और उसकी आमदनी में होने वाली वृद्धि से देश में वस्तुओं और सेवाओं की मांग भी बढ़ी और देश की आर्थिक संवृद्धि दर में सुधार हुआ। लेकिन नई आर्थिक नीति के बाद कृषि के विकास पर तो सरकार का ध्यान कम हुआ ही, साथ ही साथ सरकार द्वारा दिए जाने वाले समर्थन मूल्य में होने वाली वृद्धि कम होती गई। दूसरी ओर किसान की उत्पादन लागत में वृद्धि कहीं ज्यादा दर्ज हुई, जिसके चलते किसानों की आमदनी दिनोंदिन कम होती गई। राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि का लाभ गैर कृषि क्षेत्रों में ज्यादा पहुंचा और जहां 1980-81 में कृषि से 38 प्रतिषत जीडीपी प्राप्त होती थी, 2010-11 तक आते-आते कृषि का जीडीपी में योगदान घटकर मात्र 14.2 प्रतिशत ही रह गया। जाहिर है कि कुल श्रम शक्ति का लगभग 57 प्रतिशत हिस्सा जो कृषि में संलग्न हैं, देश की आर्थिक संवृद्धि के लाभों से वंचित रह गया। आज कृषि कोई बहुत फायदे का व्यवसाय नहीं है। अगर देखा जाए तो देश में प्रति हेक्टेयर गेहूं की उत्पादकता आज भी औसतन 29 क्विंटल है, चावल की उत्पादकता तो 22 क्विंटल से भी कम है। दालों की उत्पादकता अब भी मात्र छह क्विंटल ही है। ऐसे में गेहूं की कीमत 1200 रुपये प्रति क्विंटल होने पर भी किसान को 35,000 से भी कम प्रति हेक्टेयर मिलते हैं। उस पर किसान का कृषि पर होने वाला खर्च और उसकी मजदूरी निकाल दी जाए तो उसके लिए कुछ बचता नहीं है, लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कृषि में विकास के बिना इस देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती। 121 करोड़ से भी अधिक लोगों का यह देश अपनी खाद्य जरूरतों की आपूर्ति के लिए विदेशों पर निर्भर नहीं रह सकता। इतिहास गवाह है कि जब-जब भारत में विदेशों से खाद्यान्न का आयात किया गया है, तब-तब वैश्विक बाजार में खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिए कृषि विकास के लिए अच्छी कीमतों सहित सभी प्रकार के प्रोत्साहनों की भारी जरूरत है। ऐसे में हिसाब लगाया जाए तो किसान को कृषि कार्य करने में फायदे की बजाय नुकसान ही अधिक होता है। अगर पिछले दो वर्षो का अपवाद छोड़ दिया जाए तो देखने में आता है कि सरकार पिछले लगभग 7-8 वर्षो से कृषि उत्पादों की खरीद के अपने दायित्व से विमुख होने का प्रयास करती रही है। ऐसे में निजी कंपनियों द्वारा कृषि वस्तुओं की खरीद को बढ़ावा मिला और उनके द्वारा जमाखोरी में भारी वृद्धि हुई। ऐसे में उपभोक्ताओं का स्वभाविक रूप से शोषण हुआ। किसानों को भी निजी कंपनियों द्वारा खरीद से कोई लाभ नहीं मिला, क्योंकि निजी कंपनियों ने किसानों से समर्थन मूल्य के आसपास भारी खरीद की। हम जानते हैं कि गेहूं का समर्थन और खरीद मूल्य पिछले वर्ष 1120 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास था, जबकि बाजार में आटे की कीमत लगभग 20 से 30 रुपये प्रति किलो रही। आज विश्व में खाद्य असुरक्षा बढ़ती जा रही है। भारत में तो यह खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है। खाद्यान्नों का उत्पादन घटने की सूरत में देश फिर से विदेशों पर निर्भर होना शुरू हो गया है। खाद्यान्नों के खालिस निर्यातक से भारत आज खाद्यान्नों का खालिस आयातक बन चुका है। सरकार की कृषि के प्रति बेरुखी इस बात से परिलक्षित होती है कि जहां 1987 में सरकार अपने कुल बजट का 27 प्रतिशत कृषि पर खर्च करती थी, अब वह मात्र 5 प्रतिशत ही कृषि पर खर्च करती है। सरकार द्वारा दिए जाने वाला समर्थन मूल्य उसकी लागत की पूर्ति करने में भी असमर्थ है। ऐसे में किसान द्वारा कृषि का परित्याग और तदनुसार घटता कृषि उत्पादन देश में खाद्य मुद्रा स्फीति का प्रमुख कारण है। किसानों में बढ़ती असुरक्षा की भावना इस बात से परिलक्षित होती है कि पिछले एक दशक में लगभग तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली। किसानों की यह बदहाली देश में खाद्य असुरक्षा को तो बढ़ा ही रही है, आम जन के लिए भारी महंगाई का भी कारण बन रही है। ऐसे में सरकार में बैठे नीति-निर्माताओं को यह विचार करना होगा कि कृषि के प्रति बेरुखी देश के लिए भारी खतरे का कारण बन रही है। देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किसानों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। इसके लिए गेहूं, चावल, गन्ना इत्यादि के समर्थन मूल्य में वृद्धि करना तो आवश्यक है ही, तिलहनों, मोटे अनाजों, दालों और तमाम प्रकार के कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद और न्यूनतम कीमत को सुनिश्चित करना देश की खाद्य सुरक्षा की न्यूनतम शर्त है। सरकार द्वारा किसानों को दिए जाने वाले लाभकारी मूल्य के माध्यम से ही देश में कृषि उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। यह सिद्ध हो चुका है कि बाजारी शक्तियों के कारण कीमतों में वृद्धि वास्तव में बिचौलियों को तो लाभ देती है, किसान को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। इतिहास गवाह है कि जब भी आलू, टमाटर या अन्य प्रकार के कृषि उत्पादों के बाजार मूल्य में आए उछाल से प्रभावित होकर किसान द्वारा जब-जब उत्पादन बढ़ाया गया है, उसे भारी नुकसान सहना पड़ा है और बाजार से उचित मूल्य के अभाव में किसानों द्वारा आलू, टमाटर और अन्य प्रकार की सब्जियों को फेंकने के लिए बाध्य होना पड़ा है। जरूरत इस बात की है कि किसान को निरंतर उचित कीमत मिलने की गारंटी हो।

हैं)
अश्विनी महाजन
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार
Source: Dainik Jagran (Rashtriya-24/10/2011)

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